Navkiran Natt End Term Assignment; Prompt - 3


चौराहे के पास

“अबे गिराहक यहां .............रिया है और तू वहां ..........रिया हैपहली बार जब ये आवाज़ सुनी तो कानों पर ग़रां गुजरी थी। फिर धीरे-धीरे आदत सी हो गई। मैं सोसाइटी के उस हिस्से में पैदा हुई, पली-बढ़ी हूं, जहां इस तरह की गालियां बहुत ही ढंके-छुपे तौर पर ना भी दी जाती हों तो भी ख्याल रहता है कि कब, कहां और किसे दी जा रही हैं। जबकि यहां का तो माहौल ही ये था कि भिखारी भीख मांगता था तो गालियों से नवाज़ता था, और कहीं-कहीं तो ये किस्सा मशहूर था कि फलां फकीर अगर गाली दे दे तो समझो किस्मत खुल गई, और अगर मार ही दिया तो बस.....ये दुनिया और वो दुनिया.....जिसे जो चाहिए अपनी झोली में जाए। खैर कहानी का सिलसिला यहां से शुरु करने का मेरा कोई इरादा नहीं था, वो तो बस आपसे मुखातिब हुए और जहां से सोच का सिलसिला शुरु हुआ वहीं से कहानी शुरु हो गई.....लेकिन शुरु से शुरु करने में अलग ही आनंद है....तो कहां से शुरु करें.....

आरिफ मुझे जैन मंदिर के सामने मिला था, अब ये मत कहिएगा कि आपको नहीं पता कि जैन मंदिर कहां है। भई, मकबरों के इस शहर में, भलमनसाहत वाली एक ही तो जगह है, लालकिले के ठीक सामने, चांदनी चौक की शुरुआत, जिस पुरानी सी इमारत से होती है, अरे... वही जिसके चारों और परिदों का हुजूम हमेशा चिल्ल-पौं मचाता रहता है....वही....वैसे आपको पता ना हो ता बता दूं कि ये जैन मंदिर परिंदो का बहुत मशहूर अस्पताल भी है। वैसे मैं आजतक कभी अंदर नहीं गई हूं.....जाने का कोई मतलब ही नहीं था। वैसे भी मेरा पाला परिंदो-दरिंदो से कम ही पड़ता है। तो आरिफ मुझे इस जैन मंदिर कम परिंदों के अस्पताल के सामने मिला था। सच कहूं तो जैसे कोई पड़ी हुई चीज़ मिल जाती है, ठीक वैसे ही मिला था। अब कोई पड़ी हुई चीज़ मिले तो पहले उसे पड़े-पड़े ही परखा जाता है, तौला जाता है, फिर अगर काम की लगे तो दूसरों की नज़र बचा कर उठा लिया जाता है, ठीक वैसे ही आरिफ, जो वहां खड़ा-खड़ा अपने बायें हाथ से अपना दायां कान सहला रहा था, मुझे काम का लगा था। मैने इधर-उधर देखा और उसे उठा लिया। 

मेरे दोस्तों, वैसे उन नाशुक्रों को दोस्त कहना दोस्ती की तौहीन है, पर कहावत है किना मामा से गंदा मामा अच्छातो जो भी वो हैं, ने मुझे हमेशा की तरह धोखा दे दिया था। शिवानी का तो मुझे पता ही था, कि वो दोपहर 2 बजे सोकर उठने वाली और पूरी रात सड़कों की खाक छानने वाली महिला, कहां सुबह 7 बजे मेरे साथ चांदनी चौक घूमने आएगी, जबकि फोटोग्राफी में उसकी उतनी ही दिलचस्पी थी जितनी लता मंगेशकर को क्रिकेट में होगी.....धु्रव का मुझे लगता था कि वो तो ही जाएगा, पिछले पूरे हफ्ते वो मुझे तरह-तरह के हिंट दे रहा था, जैसा कि इस उम्र के लड़के करते रहते हैं, ‘इस उम्र’ से मेरा मतलब 20 से 25 की उम्र से है। इस उम्र में लड़के जिस भी लड़की में दिलचस्पी लेते हैं, उसकी हर बात मानते हैं, उसके हर चुटकुले पर हंसना अपना खुदाई फर्ज समझते हैं, और अगर वो कहे कि कल सात बजे चांदनी चौक में मिलना, तो वो सारे काम छोड़ कर छः बजे वहां मिल जाते हैं, लेकिन वो बदतमीज़ किसी मेडिकल इमरजेंसी के चलते नहीं आया था, बस एक व्हाटस्एप मैसेज भेज दिया था, जिसमें कई दिल और फूल बने थे। 

तो हालात ये थे कि मैं अकेली चांदनी चौक में सुबह के सात बजे खड़ी थी, पीठ पर बैग था, जो हमेशा मेरे साथ होता है, और गले में कैमरा लटका था। इस कैमरा की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है.....लेकिन वो फिर कभी....तो आरिफ मुझे जैन मंदिर के सामने, बायें हाथ से दायां कान सहलाते हुए मिला था। हालांकि उसके बायें हाथ से दायें कान को सहलाने का इस कहानी पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन ये एक ऐसी बात थी जो उसे बाकी लोगों से जुदा करती है, इसलिए बता दी। तो मैं जो चांदनी चौक में दिलचस्प चीजों की, इमारतों की और लोगों की फोटोग्राफी के सिलसिले में आई थी, मुझे आरिफ बहुत ही दिलचस्प लगा, और मैने खड़े-खड़े कैमरा दोनो हाथों से पकड़ कर उपर उठा लिया, उसने अपना कान मसलते हुए ही मुझे एक नज़र देखा और फिर मुझे दिलचस्पी के काबिल ना मानकर कहीं और देखने लगा। अचानक मेरी दिलचस्पी भी उसमें कम हो गई थी, क्योंकि जिस ज़ाविए से वो मुझे दिलचस्प लगा था वो बदल गया था। फोटोग्राफी में ज़ाविया बहुत मायने रखता है, रौशनी कहां से रही है, कहां पड़ रही है, और भी बहुत सारी चीजें हैं जो फोटोग्राफी के इस काम में बहुत मायने रखती हैं, लेकिन ये बात भी फिर कभी।क्या कर रई एं मोहतरमां....?” उसने अचानक पूछा।यूं ही....” मैने टालते हुए कहा, आखिर मैने उसकी फोटो तो खींची नहीं थी.....तो सवाल-जवाब बेकार की बात थी।मेरे अब्बा कैते एं कि एवेंई कुछ नई होता....” उसने मुस्कुराते हुए कहा। काम की बात थी....”एवेंई कुछ नई होताबिल्कुल ठीक.... मैने खूब जोर से सांस खींच कर फेफड़े में हवा भरी और उससे बात करने के लिए तैयार हो गई। वैसे भी कुछ और तो हो नहीं रहा था, यही सही। 

मैं सुबह-सुबह चांदनी चौक में फोटोग्राफी करने आई हूं.....सोचा था कि सुबह-सुबह कुछ अच्छी चीजें मिल जाएंगी.....”

सुबह-सुबह.....अरे अब तो दोपहर होने को है मोहतरमा.....और आप सुबह-सुबह कै रई एं, अरे असली फोटूगराफर तो पांच बजे आते हैं....अब तो उनके जाने का टैम हो रिया , वो देखिए.....” उसने एक तरफ को इशारा किया.....मैने देखा कि सड़क पार कुछ देसी-विदेशी टूरिस्टों का एक जत्था, रवानगी के लिए गाड़ी में बैठ रहा था। मैने नज़रें फिर उसकी तरफ मोड़ लीं।
हममम्....मेरी सुबह यही होती है....खैर कोशिश करूंगी कि कल या परसों पांच बजे जाउं....”
आप पैली बार आई एं.....”
“हां...”
फिर तो कई बार आना पड़ेगा। चांदनी चौक भूल-भुलैया जैसा ए। अकेले तो खो-खवा जाएंगी आप।
“तुम तो यहीं के लगते हो....” मेरे मुहं से निकल गया।
“भई अपनी तो पैदाइश यईं की है....अब्बा लेकिन हमारे पाकिस्तान से आए थे....दादा की गोदी में....पर अब तो यहीं के एं....पीछे की तरफ हमारा होटल ....”
होटल!!!” मेरी दिलचस्पी फिर से जाग गई थी। लीजिए फोटो ना मिले....कहानी ही सही....और अगर कहानी में पार्टिशन का मसाला हो तो कमाल हो जाए... “तो तुम ही घुमा दो मुझे चांदनी चौक....” 
“हां हां....क्यों नई..., थोड़ा जल्दी आइएगा....घुमा देंगे.....बहुत पुरानी-पुरानी इमारते हैं यहां पर....हम तो सब जानते हैं....कहानियां भी और लोगों को भी.....”
हममम्...लेकिन आज तो ग़ारत हो गया मेरा....”
क्यूं....ग़ारत क्यूं हो गया....चलो आज भी कल्लो थोड़ी-भौत फोटोगराफी....” उसने मुस्कुराते हुए कहा.....

....तो ये हमारी पहली मुलाकात थी। दूसरे दिन मैं चार बजे का अलार्म लगा कर सोई, और पांच बजे चांदनी चौक पहुंच गई थी। आरिफ वहीं मिला था, बायें हाथ से दायां कान सहलाते हुए, मैने उसे फोन कर दिया था। वो सचमुच चांदनी चौक के बारे में बहुत कुछ जानता था, गज़ब की बात ये थी कि उसे हर गली का नाम पता था, उस गली का वो नाम क्यों पड़ा ये पता था, ये बड़ा कमाल इसलिए भी था क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था जैसे एक ही गली के तीन-चार नाम हों, जैसे कहीं गली कासिम थी तो थोड़ी दूर चलने पर वहीं कटरा दीन मुहम्मद निकल जाता था, और वहीं कहीं किनारी गली भी मिल जाती थी। उस दिन मैने करीब ढाई घंटे फोटोग्राफी की.....गज़ब की फोटोग्राफी, या.....आम फोटोज़ ही थीं.....कहीं गाय बैठी थी, कहीं कोई पुराना दरवाजा था, और कहीं....खैर। फोटोग्राफी हुई, सुबह की घुमक्कड़ी हुई, और उसके बाद पराठे वाली गली में नाश्ता हुआ। हालांकि आरिफ इस नाश्ते से खुश नहीं था। उसे लगता था कि परांठे वाली गली के परांठे दरअसल दिल्ली की, या यूं कहें पुरानी दिल्ली की तहजीब के खिलाफ थे। 

“....अजी यहां के लोग तो इन परांठो की तरफ कानी आंख से भी नईं देखते....” उसने बुरा सा मुहं बनाते हुए कहा.... “हमारे लोग तो निहारी खाते हैं.....नान के साथ...” 

पर मुझे कहा गया था कि भई पुरानी दिल्ली जाओ तो पराठे वाली गली के पराठे ज़रूर खाना। अब मुड़ कर सोचती हूं तो लगता है कि उन पराठों में ऐसी कोई खास बात तो नहीं ही थी, और अब मेरी दिलचस्पी निहारी में हो गई थी, तो वहीं ये तय हो गया कि मैं कभी शाम को उसके होटल पर जाउं और वो वहीं निहारी का बंदोबस्त कर देगा। 

वो कानों को ग़रां गुज़रने वाला डायलॉग जिससे मैने ये कहानी शुरु की थी, वो मुझे उसके होटल पर ही सुनाई दिया था। उसके अब्बा एक कुर्सी पर बैठे थे, कुछ-कुछ देर बाद अपने बायें हाथ से दायां कान सहला रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर में किसी ना किसी को गाली के साथ कोई आदेश दे रहे थे। कमाल ये था कि ना तो ग्राहक, जिसे गाली पड़ी थी, और ना ही वो नौकर जिसके हवाले से ग्राहक को गाली पड़ी थी, इस बात का कोई नोटिस ले रहा था, कि होटल का मालिक बेरोकटोक हर किसी को खाने के साथ-साथ गालियां भी परोस रहा है। होटल खासा चलता लगा, क्योंकि पूरा भरा हुआ था, और लोग खाना खा रहे थे। अगर आपने कभी पुरानी दिल्ली के किसी ऐसे ही पुराने होटल में खाना नहीं खाना तो यकीन मानिए, आप नहीं जानते कि नॉन वेज कैसे खाया जाता है। ऐसे नहीं कि नज़ाकत के साथ हड्डी को उठाया और मांस को होंठो से छील लिया। हड्डी को मजबूती से हाथों में पकड़ा जाता है और फिर ऐसे चबाया जाता है कि अगर कोई आपको खाते हुए देख ले तो आपके साथ अकेले चलने में भी घबरा जाए, और अगर आप खाते हुए उस शख्स को खुद को देखते हुए देख लें तो आपको शर्म जाए....लेकिन फिर खाने का मज़ा तो तब ही है जब आप पूरी बेशर्मी से हड्डी को चबा डालें और फिर कस कर एक ज़ोरदार डकार लें। 

अपने होटल में उसकी चाल-ढाल, मिजाज़ सबकुछ बदला हुआ था। वहां वो अपने होटल के कारकुनों पर हुक्म चलाता हुआ कुछ अजीब सा लग रहा था। उसने बिल्कुल किसी अच्छे दोस्त की तरह मेहमाननवाज़ी की...हालांकि खाने के पैसे पूरे लिए। खाते हुए मैने गौर किया कि वो ध्रुव को, जो मेरे साथ कुछ ज्यादा ही अपनापे की दोस्ती दिखा रहा था, घूरता रहा था, जो बहुत ही सामान्य सी बात थी। पैसे देने के बाद उससे बातें करते हुए मैने कहा कि मैं उसका घर देखना चाहती हूं। वो खुश हो गया...लेकिन उस दिन उसे होटल में काम करना था इसलिए तय पाया गया कि किसी और दिन उसके घर जाया जाएगा। 

मेरे नाशुक्रे दोस्तों ने अगली बार भी मेरा साथ नहीं दिया और मैं अकेले ही आरिफ के घर गई। बहुत ही पुराना सा मकान था, जो शायद अलॉट किया गया था। मकान सरकार अलॉट करती है, लेकिन उसकी कहानी तो लोग खुद ही अलॉट कर लेते हैं। हर मकान के साथ एक कहानी, कुछ मकानों में तो कमरों से ज्यादा कहानियां होती हैं। कुछ कहानियां बर्बादी से आबादी की और कुछ बर्बादी की.... घर बिल्कुल दिल्ली वाली खास शैली में बना हुआ था, जिसमें बीच में एक आंगन था और उसके तीन तरफ तीन मंजिला बिल्डिंग थी.....संकरी सीढ़ियां थीं और शायद बाद में मेन गेट के पास टायलेट बना दिए गए थे। जब अलॉटमेंट हुई थी तो आरिफ के दादा को नीचे दो कमरे मिले थे, वो अपने साथ कुछ माल-मत्ता समेट लाने में कामयाब हुए थे, और इसलिए पास ही होटल खोल लिया था। होटल चल निकला तो धीरे-धीरे सभी अलॉटीज़ से उन्होने घर खरीद लिया था। हालांकि घर का मालिक कौन था ये किसी को नहीं पता था, पर अलॉटीज़ के तौर पर पूरे घर पर आरिफ के परिवार का कब्ज़ा था।

“हमारे अब्बू खालिस कांग्रेसी थे....हां....गांधी जी को बड़ा मानते थे....रोज प्रभातफेरी गाते थे। तो जब पार्टीशन हुआ तो बोले की जहां गांधी जी रहेंगे, वहीं हम रहेंगे....अब कोई जमींदार तो थे नईं कि रह जाते....हैं बेटे....छोटी मोटी दुकनदारी थी....वो बेच-बाच कर यहां गए...कुछ दिन रिफ्यूजी कैम्प में रहे और फिर यहां दो कमरे अलॉट हो गए।आरिफ के अब्बू ने अपने इतिहास की परतें खोलते हुए बताया।

हमारे अब्बू थे असली हिंदुस्तानी....कहते थे पाकिस्तान-वाकिस्तान क्या है...अंग्रेजों की शैतानी है। मरते दम तक उन्हे यकीन था कि पाकिस्तान को अक्ल जाएगी और वो हिन्दुस्तान में एकमेक हो जाएगा।फिर खुद ही सिर हिलाने लगे...”हमें देख लो....आज भी उनकी फोटू के साथ गांधी जी की फोटू लगा रखी है.....” 

मैने अंदर की तरफ झांक कर देखा, सामने की दीवार पर गांधी जी की तस्वीर लगी थी और उनके बगल में एक तस्वीर थी जिसमें एक बुर्जुग मुस्कुरा रहे थे। 

हमारे अब्बा हुजूर....” आरिफ के अब्बा ने मुझे तस्वीर देखते हुए पाया तो जानकारी दी।हमारे अब्बा को लगता था कि हिन्दु-मुसलमान दोनो ही हिन्दुस्तानी हैं....और इसलिए वो जिंदगी भर कांग्रेसी रहे....जब मुस्लीम लीग और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे थे, तब भी अब्बू कांग्रेस और गांधी जी जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे....” कहानी सुनाते-सुनाते वो थोड़ा ग़ुम से हो गए थे। मैने उन्हे टोकना ठीक नहीं समझा.... “अब्बा के दोस्तों ने भौत समझाया....भई मुसलमान हो तो पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाओ.....लेकिन वो माने नहीं....बहुत हिम्मती थे हमारे अब्बा....बोले पैदा हिन्दुस्तान में हुए....तो मरेंगे भी हिंदुस्तान में.....माहौल बहुत खराब था.....बहुत ही खराब....हमारी अम्मी बताती थीं....अब तो खै़र वो भी फ़ौत हो गईं....तीन औलादें थी उनकी....हम सबसे छोटे हुए...हमसे बड़ा एक भाई था....और एक बहन थी....जब फसाद हुए तो हमारे मुहल्ले में जो हिन्दु परिवार थे....अब्बा ने देखा कि वो किसी भी तरह सेफ नहीं रह सकते....वो तो ख़ैर जान पर खेल कर भी वहीं रह जाते....लेकिन उन्होने ठान लिया कि एक भी परिवार का कोई बाल भी बांका नहीं होने देंगे....” पीछे से आरिफ की बहन चाय लेकर रही थी....मैने हाथ के इशारे से मना कर दिया.....

वो यूं करते थे कि रात को चुपके से परिवार को निकाल कर सेफली हिन्दुस्तान की तरफ रवाना कर देते थे.....और भी दोस्त थे उनके साथ.....गांधी जी को मानने वाले.....” उन्होने अपने दांये हाथ से अपना बायां कान सहलाया.... “पर ये सिलसिला ज्यादा देर तक चलने वाला नहीं था ना.....अब चारों तरफ आग लगी हुई है....और आप हो कि....और सबसे बड़ी बात ये कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की ना तब कोई लड़ाई थी.....ना अब कोई लड़ाई है....वो बलवा यूं हुआ था कि चंद लोगों को अपनी रोटियां सेंकनी थीं.....और अब भी यही है कि चंद लोगों को अपनी रोटियां सेकनी हैं.....तो.....”

“ख़ैर....हमारी अम्मी बताती हैं कि हमारे अब्बू को निशाने पर रख लिया गया था....और ये अफवाह फैला दी गई थी कि वो काफिरों के साथ मिल गए हैं....हमला बस होने ही वाला था....लेकिन अब्बू के हमप्यालों-हमनिवालों ने ही उन्हे खबर कर दी....अब्बू तो हमारे फिर भी जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे...कहते थे कि गांधी जी की एक आवाज़ से अवाम चुप हो जाएगी और अंग्रेजों की ये साजिश फूट जाएगी.....लेकिन अम्मी ने ज़िद ठान ली.....बस इधर ये अपने घर से निकले और उधर हमला हो गया.....”

किसी तरह जान बचा कर हिन्दुस्तान तक तो गए....पर उस वक्त का पागलपन....तौबा...उस पागलपन ने ही हमारे बड़े भाई और बहन को भी छीन लिया....ना अब्बू ने और ना हमारी अम्मी ने बताया कि उनके साथ क्या हुआ....बस हमें छाती से चिपटाए रहती थी अम्मी....कभी-कभी रात को चीख कर उठ जाती थीं और हमारी बहन का नाम पुकारती थीं.....” “पर अब्बू को ये चैन था कि हमने अपना ईमान नहीं छोड़ा....हिन्दुस्तान उनका मुल्क था....और वो यहां के बाशिन्दे थे....पाकिस्तान को बहुत बुरा-बुरा कहते थे....कहते थे ना ईमान है ना शउर है....नेहरू पर यकीन था....”

उन्होने एक बार फिर सांस खींची....और अपने दायें हाथ से अपना बायां कान सहलाया....मेरी नज़र बरबस आरिफ की तरफ मुड़ गई....वो भी खड़ा हुआ अपने दायें हाथ से अपना बायां कान सहला रहा था। “फिर तो बस यही कहानी है किस तरह हम इधर रिफ्यूजी हुए....लेकिन अब्बा को किसी बात का ग़म नहीं था....कभी अम्मी शिकायत करती थीं तो कहते थे कि वहां की रोटियां भी हमारे लिए हराम हैं...”

उनकी आंखें नम हो गई थीं....आरिफ की बहन चाय ले आई तो मैने कप उठा लिया...इसके बाद भी बहुत सी बातें हुईं....बहुत सारे फोटो खींचे गए....और फिर मैं आरिफ के साथ वहीं गई जहां सबसे पहले उससे मुलाकात हुई थी....जैन मंदिर के पास....चांदनी चौक के मुहाने पर....सर्दियों की दोपहर ढ़ल रही थी.....और सड़क गुलज़ार थी....सामने से किसी राजनीतिक पार्टी का जुलूस जा रहा था....नारे लग रहे थे, “हिन्दुस्तान में रहना है तो जय.... .. ... कहना होगा”....

मेरी हिम्मत ही नहीं पड़ी कि मैं आरिफ की तरफ नज़र उठा कर देखूं....मैने बड़ी हिम्मत करके उससे हाथ मिलाया....वो शायद मेरी परेशानी समझ गया था। “...अरे ये सब हवा ....अवाम समझदार है....अच्छी तरह जानती है कि कौन हिन्दुस्तान को प्यार करता है....और कौन उसे बर्बाद करने की कोशिश कर रिया है.....” उसने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा....मैने कैमरा आंखों तक लगाया और उसकी एक शानदार तस्वीर खींच ली.....फोटोग्राफी में रौशनी, जाविए के अलावा दिल का भी बहुत बड़ा दखल होता है.....है ना!!!

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